ढेर सारी ट्रेनों की आवाजाही के बीच भी
वह खड़ा रहता है
और उसकी जड़ो को नही काट पाता
रेलगाड़ी का कोई पहिया
जैसे उसकी जड़े गहरे धंसी हो कही पाताल में
जो रोज ला देती है अँधेरा इस पृथ्वी पर
बहुत सारे उब के बाद भी
अपने इंतजार को वह टिकाये रखता है
उसकी पतियाँ बातें करती है चंद्रमा..तारे..नक्षत्रो से
और नीचे जड़ो तले कोई मजदूर
अनेक नाउम्मीदी के बाद भी सुखा रहा होता है
अपने उम्मीद का पसीना
बढ़ा रहा होता है कही धरती पर पानी का स्रोत
और छलक कर गिरने लगती है पतियों की हरियाली
प्लेटफोर्म की दुधियाँ रौशनी में नहाकर
तब अचानक कोई यात्री
ट्रेन छूटने की उदासी और इंतजार की उम्मीद के बीच से निकलकर
थाम लेता है उम्मीद का दामन
और सुबह चार बजकर तीस मिनट पर जानेवाली मालगाड़ी
(जो रोजाना पक्शिम से पूरब की ओर जाती है )
के साथ ही, वह झूम उठता है
जैसे अभी-अभी ख़त्म हुआ हो वर्षो का कोई इंतजार ...
दिल्ली हादसों का नही इतिहास का शहर हैं...और यहाँ इतिहास किसी सल्तनत का नही शहर का हैं और शहर में कैद मुहब्बतों का है. हां, अपने पीछे छुट गए शहर के झरोंखों में झांकता हूँ तो तुम यादों की पोटली बन जाती हैं जिसे तुमने 'क्यूं' और 'क्या' के गिरह में बाँध रखा है.
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हमसब राजा थे अपने-अपने हिस्से के अपने दिनों में, तब बिखरा रहता था उत्साह हर तरफ,और बचा रह जाता था जोश अंतिम थकान के बाद भी, उस वक़्त खिड़किया...
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हमसब राजा थे अपने-अपने हिस्से के अपने दिनों में जब हर तरफ बिखरा रहता था उत्साह और अंतिम थकान के बाद भी बचा रह जाता था जोश जिद ...
गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011
वह पेड़
हाँ अन्ना .....
हाँ अन्ना ,हो सके तो माफ़ करना
बहुत सारी उम्मीदों के बाद भी
हम नही तय कर सके जनांदोलन के बवंडर मे,
आप आंधी है या गाँधी?
हाँ, हम दृष्टिदोष से पीड़ित है
एक मोटी परत चढ़ गयी है आँखों पर
दिमाग में हमेशा घुमड़ते रहते है शक-व-संदेह के बादल
विश्वाश का क्या कहे वह कब का
रण छोड़ चूका है जन-आस के ही आगे
रण छोड़ चूका है जन-आस के ही आगे
और लड़ने का जोश तो कैद हो गया है ''मौलिक अधिकारों'' में
भीड़ की शक्ल में हर इंसान अब, शकुनी सरीखा दिखता है
चूँकि सबके अपने-अपने कौरव और पांडव है
और पाल रखी है चाहत सबने पैगम्बर बनने की
और बहुत तो अमादा है इस बात पर की यही 'रामराज्य' होगा
और जो बच जाते है दो घटा दो के बाद शुन्य की तरह वह जन है ही कहा
जाहिर है एक बड़ा प्रश्न शुन्य की तरह गोल ही पड़ा है सदियों से
सबसे बड़े भ्रस्टाचार के रूप में
जिसकी हर लड़ाई ईमानदार महाभारत में
"अंगड़ाई का नक्शा बन-बनकर" खो देती है अपना वजूद भूख के आगे
हाँ अन्ना तुम्हारे समर्थन की बयार में
हमने देखे है दो तरह के लोग
एक वह जो खाए-पिए-अघाए है हमारी तरह
जिनकी पहचान ही आन्दोलन की आवाज है
और दूसरे वे जो पँक्ति में खड़े है सबसे पीछे
थोड़े सख्त और गुमसुम अपने मटमैले रंग में
जिन्होंने ठान लिया है दुनिया को मुक्त करना है कचरे के ढेर से
और चला रखा है आन्दोलन जो टंगा हुआ है पीठ पर बैताल की तरह
इस उदारवादी दुनिया में रोज कम होता जाता है उनके हिस्से का एक निवाला
हाँ अन्ना इस भारत में तुम्हारी लड़ाई भ्रस्टाचार से है सुविधाओ के भविष्य के लिये
और इस भारत में एक लड़ाई भूख की है वर्तमान से
और बहुत तो अमादा है इस बात पर की यही 'रामराज्य' होगा
और जो बच जाते है दो घटा दो के बाद शुन्य की तरह वह जन है ही कहा
जाहिर है एक बड़ा प्रश्न शुन्य की तरह गोल ही पड़ा है सदियों से
सबसे बड़े भ्रस्टाचार के रूप में
जिसकी हर लड़ाई ईमानदार महाभारत में
"अंगड़ाई का नक्शा बन-बनकर" खो देती है अपना वजूद भूख के आगे
हाँ अन्ना तुम्हारे समर्थन की बयार में
हमने देखे है दो तरह के लोग
एक वह जो खाए-पिए-अघाए है हमारी तरह
जिनकी पहचान ही आन्दोलन की आवाज है
और दूसरे वे जो पँक्ति में खड़े है सबसे पीछे
थोड़े सख्त और गुमसुम अपने मटमैले रंग में
जिन्होंने ठान लिया है दुनिया को मुक्त करना है कचरे के ढेर से
और चला रखा है आन्दोलन जो टंगा हुआ है पीठ पर बैताल की तरह
इस उदारवादी दुनिया में रोज कम होता जाता है उनके हिस्से का एक निवाला
हाँ अन्ना इस भारत में तुम्हारी लड़ाई भ्रस्टाचार से है सुविधाओ के भविष्य के लिये
और इस भारत में एक लड़ाई भूख की है वर्तमान से
हाँ अन्ना अब तुम कह सकते हो इस ग्लोबल वार्मिंग के दौर में
जब शुद्धता के जमने का समय है
तब क्यूँ डाल रहे हो जड़ों में मठा
और क्यों पैदा कर रहे हो वातारण में खटास
जब शुद्धता के जमने का समय है
तब क्यूँ डाल रहे हो जड़ों में मठा
और क्यों पैदा कर रहे हो वातारण में खटास
सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
लडकपन
हमसब राजा थे
अपने-अपने हिस्से के
अपने दिनों में,
तब बिखरा रहता था उत्साह
हर तरफ,और
बचा रह जाता था जोश
अंतिम थकान के बाद भी,
उस वक़्त खिड़कियाँ हुआ करतें थे हमसब
और हमारी बातें रौशनदान
अपने-अपने हिस्से के
अपने दिनों में,
तब बिखरा रहता था उत्साह
हर तरफ,और
बचा रह जाता था जोश
अंतिम थकान के बाद भी,
उस वक़्त खिड़कियाँ हुआ करतें थे हमसब
और हमारी बातें रौशनदान
दूरी
अब जबकि हम सबसे नजदीक है
तब,सबसे अधिक दुरी है हमारे बीच
ठीक वैसे ही ,जैसे
एक गर्म चाय की प्याली और होंठो के बीच
हजारों मील की होती है
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