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शनिवार, 11 जून 2011

चीटियाँ

चलते-चलते एक रात
जब चली जाएँगी चीटियाँ पृथ्वी से
तब ख़त्म होने लगेगी मिठास चीनी से
धीरे-धीरे
बढ़ता जायेगा बोझ छोटे-छोटे कणों से
पृथ्वी का
लोंग भूलने लगेंगे सउर मिलने का
आपस में
सुनसान पड़े घर में छाती जाएगी वीरानी
और वह कहानीकार ढूंढेगा कोई पात्र
जो नाको चने चबवा सके हाथी को
फिर
वर्तमान सभ्यता की बहसों में गूंजेगा यह सवाल
अब कौन करेगा पृथ्वी की पहरेदारी
दिन-रात चीटियों की तरह.

सोमवार, 6 जून 2011

कलकत्ते वाली गाड़ी

कलकत्ते वाली गाड़ी
बैठा लाती सूरज को
डेली
टांग जाती आसमां में
सुबह-सुबह

सरपट
पहली किरण की भांति
चली जाती बनारस
वही होता हाल-चाल
उलझते
सुलझते
सुलगते
दुनिया भर की बातो पर

फिर
चमकीली रेत को लगा माथे
कलकत्ते वाली गाड़ी
चल देती धीरे-धीरे
पैठ लेता सूरज भी
बगैर आवाज किये पानी की तरह
साथ-साथ
और जाते-जाते
ले जाती
एक हुगली
एक गंगा
एक भरा-पूरा दिन
कलकत्ते वाली गाड़ी

आसमां में कोई पेड़ नहीं उगता

आसमां में
कोई पेड़ नही उगता

वरना
वहां भी होती एक चिड़ियाँ
दिनों बाद गिरी पत्तियों से
गढ़ती घोसला

दूर से आता कोई नागरिक
बना लेता फैली जड़ो को
अपना बिछावन
वहां भी होता एक बसंत
और कोयल की कुक
भले ही न होता
कोई फुल या फल कभी
अदद एक पेड़ होता

लेकिन नही होता
कुछ भी
उलट इस पृथ्वी की उर्वरता के
की
आसमां में एक पेड़ होता ?

रेलगाड़ी

जब भी आना होगा तुम्हे
बेहिचक आ जाना
बिना बताये
जैसे आ जाती है रेलगाड़ी
और छोड़ जाती है
कुछ निशान
पीछे पटरियां
रास्ता रेलगाड़ी का

सुबह-सुबह

माँ
हा माँ
चढ़ा क्या देती है ...
एक लोट्की जल सूर्य को
बस उतने में ही
मांग लेती है
सूर्य की लालिमा
लोट्की में सबके लिये
और प्रार्थना में
बाँट देती है रोजाना
अपनी उम्र के हिस्से
उनको ..इनको ...सबको ...
जब नही बचता कुछ
पास अपने.....

तब,आते ही भर लेती जल
लोट्की में
रख देती वही.... सामने
जोड़कर हाथ
चल देती पांच भवंर
पृथ्वी के
सुबह-सुबह