Popular Posts

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

वह पेड़

ढेर सारी ट्रेनों की आवाजाही के बीच भी
वह खड़ा रहता है
और उसकी जड़ो को नही काट पाता
रेलगाड़ी का कोई पहिया
जैसे उसकी जड़े गहरे धंसी हो कही पाताल में
जो रोज ला देती है अँधेरा इस पृथ्वी पर
बहुत सारे उब के बाद भी
अपने इंतजार को वह टिकाये रखता है
उसकी पतियाँ बातें करती है चंद्रमा..तारे..नक्षत्रो से
और नीचे जड़ो तले कोई मजदूर
अनेक नाउम्मीदी के बाद भी सुखा रहा होता है
अपने उम्मीद का पसीना
बढ़ा रहा होता है कही धरती पर पानी का स्रोत
और छलक कर गिरने लगती है पतियों की हरियाली
प्लेटफोर्म की दुधियाँ रौशनी में नहाकर
तब अचानक कोई यात्री
ट्रेन छूटने की उदासी और इंतजार की उम्मीद के बीच से निकलकर
थाम लेता है उम्मीद का दामन
और सुबह चार बजकर तीस मिनट पर जानेवाली मालगाड़ी
(जो रोजाना पक्शिम से पूरब की ओर जाती है )
के साथ ही, वह झूम उठता है
जैसे अभी-अभी ख़त्म हुआ हो वर्षो का कोई इंतजार ...

हाँ अन्ना .....

हाँ अन्ना ,हो सके तो माफ़ करना
बहुत सारी उम्मीदों के बाद भी
हम नही तय कर सके जनांदोलन के बवंडर मे,
आप आंधी है या गाँधी?

हाँ, हम दृष्टिदोष से पीड़ित है
एक मोटी परत चढ़ गयी है आँखों पर
दिमाग में हमेशा घुमड़ते रहते है शक-व-संदेह के बादल
विश्वाश का क्या कहे वह कब का
रण छोड़ चूका है जन-आस के ही आगे
और लड़ने का जोश तो कैद हो गया है ''मौलिक अधिकारों'' में
भीड़ की शक्ल में हर इंसान अब, शकुनी सरीखा दिखता है
चूँकि सबके अपने-अपने कौरव और पांडव है
और पाल रखी है चाहत सबने पैगम्बर बनने की
और बहुत तो अमादा है इस बात पर की यही 'रामराज्य' होगा
और जो बच जाते है दो घटा दो के बाद शुन्य की तरह वह जन है ही कहा
जाहिर है एक बड़ा प्रश्न शुन्य की तरह गोल ही पड़ा है सदियों से
सबसे बड़े भ्रस्टाचार के रूप में
जिसकी हर लड़ाई ईमानदार महाभारत में
"अंगड़ाई का नक्शा बन-बनकर" खो देती है अपना वजूद भूख के आगे

हाँ अन्ना तुम्हारे समर्थन की बयार में
हमने देखे है दो तरह के लोग
एक वह जो खाए-पिए-अघाए है हमारी तरह
जिनकी पहचान ही आन्दोलन की आवाज है
और दूसरे वे जो पँक्ति में खड़े है सबसे पीछे
थोड़े सख्त और गुमसुम अपने मटमैले रंग में
जिन्होंने ठान लिया है दुनिया को मुक्त करना है कचरे के ढेर से
और चला रखा है आन्दोलन जो टंगा हुआ है पीठ पर बैताल की तरह
इस उदारवादी दुनिया में रोज कम होता जाता है उनके हिस्से का एक निवाला
हाँ अन्ना इस भारत में तुम्हारी लड़ाई भ्रस्टाचार से है सुविधाओ के भविष्य के लिये
और इस भारत में एक लड़ाई भूख की है वर्तमान से

हाँ अन्ना अब तुम कह सकते हो इस ग्लोबल वार्मिंग के दौर में
जब शुद्धता के जमने का समय है
तब क्यूँ डाल रहे हो जड़ों में मठा
और क्यों पैदा कर रहे हो वातारण में खटास

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

लडकपन

हमसब राजा थे
अपने-अपने हिस्से के
अपने दिनों में,
तब बिखरा रहता था उत्साह
हर तरफ,और
बचा रह जाता था जोश
अंतिम थकान के बाद भी,
उस वक़्त खिड़कियाँ हुआ करतें थे हमसब
और हमारी बातें रौशनदान

दूरी

अब जबकि हम सबसे नजदीक है


तब,सबसे अधिक दुरी है हमारे बीच


ठीक वैसे ही ,जैसे


एक गर्म चाय की प्याली और होंठो के बीच


हजारों मील की होती है


गुरुवार, 21 जुलाई 2011

वसंत

माँ
एक ऐसी वसंत है
जो ,हर पतझर में बचा लेती है
ममता भरी हरी पतियाँ
खिरनी की तरह
कभी पुरे नही झरते उसके पत्ते
और नही ख़त्म होती छाहं
उसकी कभी भी

बुधवार, 13 जुलाई 2011

बूँदें

टप-टप .......

बारिश की बूंदों ने

भिंगो दिया

और सज गयी महफ़िल

आँखों के आगे

जब उतर आई थी बुँदे

एक अनजान शहर से ,

गिरती रही

गाते हुए राग-मल्हार,

और तुम्हारी याद का सितार

बजता रहा अपने ही धुन में,

फकत इतना की तुम न आयी

और बुँदे बारिश की

टप-टप ......

आती रही तुम्हारे ही दरिया से

शनिवार, 11 जून 2011

चीटियाँ

चलते-चलते एक रात
जब चली जाएँगी चीटियाँ पृथ्वी से
तब ख़त्म होने लगेगी मिठास चीनी से
धीरे-धीरे
बढ़ता जायेगा बोझ छोटे-छोटे कणों से
पृथ्वी का
लोंग भूलने लगेंगे सउर मिलने का
आपस में
सुनसान पड़े घर में छाती जाएगी वीरानी
और वह कहानीकार ढूंढेगा कोई पात्र
जो नाको चने चबवा सके हाथी को
फिर
वर्तमान सभ्यता की बहसों में गूंजेगा यह सवाल
अब कौन करेगा पृथ्वी की पहरेदारी
दिन-रात चीटियों की तरह.

सोमवार, 6 जून 2011

कलकत्ते वाली गाड़ी

कलकत्ते वाली गाड़ी
बैठा लाती सूरज को
डेली
टांग जाती आसमां में
सुबह-सुबह

सरपट
पहली किरण की भांति
चली जाती बनारस
वही होता हाल-चाल
उलझते
सुलझते
सुलगते
दुनिया भर की बातो पर

फिर
चमकीली रेत को लगा माथे
कलकत्ते वाली गाड़ी
चल देती धीरे-धीरे
पैठ लेता सूरज भी
बगैर आवाज किये पानी की तरह
साथ-साथ
और जाते-जाते
ले जाती
एक हुगली
एक गंगा
एक भरा-पूरा दिन
कलकत्ते वाली गाड़ी

आसमां में कोई पेड़ नहीं उगता

आसमां में
कोई पेड़ नही उगता

वरना
वहां भी होती एक चिड़ियाँ
दिनों बाद गिरी पत्तियों से
गढ़ती घोसला

दूर से आता कोई नागरिक
बना लेता फैली जड़ो को
अपना बिछावन
वहां भी होता एक बसंत
और कोयल की कुक
भले ही न होता
कोई फुल या फल कभी
अदद एक पेड़ होता

लेकिन नही होता
कुछ भी
उलट इस पृथ्वी की उर्वरता के
की
आसमां में एक पेड़ होता ?

रेलगाड़ी

जब भी आना होगा तुम्हे
बेहिचक आ जाना
बिना बताये
जैसे आ जाती है रेलगाड़ी
और छोड़ जाती है
कुछ निशान
पीछे पटरियां
रास्ता रेलगाड़ी का

सुबह-सुबह

माँ
हा माँ
चढ़ा क्या देती है ...
एक लोट्की जल सूर्य को
बस उतने में ही
मांग लेती है
सूर्य की लालिमा
लोट्की में सबके लिये
और प्रार्थना में
बाँट देती है रोजाना
अपनी उम्र के हिस्से
उनको ..इनको ...सबको ...
जब नही बचता कुछ
पास अपने.....

तब,आते ही भर लेती जल
लोट्की में
रख देती वही.... सामने
जोड़कर हाथ
चल देती पांच भवंर
पृथ्वी के
सुबह-सुबह

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

चाँद और तुम

चाँद का तिरछापन

खटकता नहीं है अब

बेध जाता है कही गहरा ...

...........कैसे

स्थिर नहीं रख पाता

चाँद अपनी गोलाई ...?

और

तुम चुपचाप

रख देती अपना हृदय

उस ताक पर

जहां कभी

चिराग जला करते थे |

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

पता

ऐसा क्या था ?
तुम्हारी आवाज में ...
वह खींचता चला गया
हवा में फेंका नहीं था ...
तुमने अपने घर का पता....
वह सबसे पूंछता चला गया
....हाँ
तुम अब भी कहोगी
वह पागल था